ख़ामोश लफ्ज़ों का शोर
ख़ामोश लफ्ज़ों का शोर
ग़म के साए में खुद को छुपा लेता हूँ,
दिल की किताबों को मैं जला देता हूँ।
जो लफ़्ज़ जुबां तक आते नहीं,
उनको रातों की खामोशी में बहा देता हूँ।
यूँ तो मजलिसों में शामिल नज़र आता हूँ,
पर सच कहूँ तो मैं खुद से भी नज़रें चुराता हूँ।
बातों में हँसी बिखेरता हूँ यूँ,
पर अंदर का सूनापन किसी को दिखाता नहीं हूँ।
मेरी आँखों के आँसू पढ़ सको तो पढ़ लो,
वो सच्चाई हैं, जिनको मैं मानता नहीं हूँ।
मुस्कान जो चेहरा सजाए हुए है,
वो नकाब है, जिसे मैं उतारता भी नहीं हूँ।
चलो दर्द को साथी बना लिया है मैंने,
सफ़र तन्हा सही, पर सह लिया है मैंने।
लोग समझे न समझे, इसकी परवाह क्यों,
खामोशी से हर जख्म को सह लिया है मैंने।
जिनसे मोहब्बत थी, वो दूर हो गए,
जिनसे रिश्ता था, वो मजबूर हो गए।
खुद से बातें कर-करके जी लिया है मैंने,
वर्ना सच कहूँ, तो मैं कब का टूट गया होता।
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